Saturday 7 May 2011

सच्चाई से गुरेज कैसा!

कन्हैया कोष्टी
अहमदाबाद। हिन्दू-मुसलमान फसाद न तो गुजरात के लिए कोई नई बात है और न ही इस देश के लिए। स्वतंत्रता से पहले और उसके बाद अब तक हमारे यहां इतने फसाद हो चुके हैं, जिनकी गिनती करना शायद संभव नहीं होगा, लेकिन देश के चंद और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोगों की जुबान गुजरात के दंगों पर आकर अटक जाती है।
मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बड़े मौके से अण्णा हजारे को पत्र लिखा। हजारे ने उनके विकास कार्यों की तारीफ की और चौबीस घण्टे के भीतर मोदी ने खुला पत्र हजारे के नाम लिख दिया और जो आशंका जताई, वह सही भी साबित हुई। खैर मोदी की आशंकाएं अपनी जगह हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही पैदा होता है कि आखिर हंगामा किस बात का है। क्या हंगामा करने से परिस्थितियां बदल जाएंगी। जितनी सच्चाई 28 फरवरी 2002 व उसके बाद चार माह तक चले गुजरात दंगों की है, उतनी ही सच्चाई 27 फरवरी, 2002 को हुए गोधरा कांड की भी है और उतनी ही सच्चाई पिछले एक दशक में हुए उस विकास की भी है, जो केरल के कांग्रेस सांसद अब्दुल्ला कुट्टी से लेकर अण्णा हजारे तक के लोगों को दिखाई दिया। कुट्टी और हजारे के बीच अमिताभ बच्चन, वस्तानवी और मेजर जनरल आई. एस. सिंघा जैसी बड़ी हस्तियां भी आती हैं, जो मोदी के कामकाज से प्रभावित रहे, लेकिन सभी को विवाद में घसीटा गया या यूं कहें कि बिना वजह विवाद में घसीटा गया। हजारे ने अपने बयान के अड़तालीस घण्टे बाद ही स्पष्ट किया कि वे मोदी के समर्थक नहीं हैं। हजारे को यह स्पष्ट करने की जरूरत भी नहीं थी, क्योंकि उनसे पहले कुट्टी से लेकर वस्तानवी तक सभी यह कह चुके हैं। समझ में यह नहीे आता कि आखिर विवाद और हंगामा किस बात का है। यह तो सभी जानते हैं कि इस देश में कभी भी साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता का समर्थन कोई नहीं करेगा। उपरोक्त किसी हस्ती ने भी अपने बयानों में मोदी के कामकाज की तारीफ की। किसी ने भी उस पहलू को अपने बयान से कभी नहीं जोड़ा, जिसके तहत मोदी पर हमेशा गुजरात दंगे कराने के आरोप लगाए जाते रहे हैं।
दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह उभर कर आता है कि जिन दंगों को लेकर मोदी को उनके विरोधी घेरने की कोशिश करते हैं, उससे यही लगता है कि वे लोग मोदी की राजनीतिक सफलता के सामने खुद को कहीं न कहीं बौना पाते हैं। मोदी लोकतांत्रिक ढंग से मुख्यमंत्री के पद पर हैं और जहां तक दंगों का सवाल है, तो 2002 के दंगे न तो गुजरात में और न ही भारत में पहली बार हुए दंगे नहीं थे। इससे पहले भी दंगों का लम्बा इतिहास रहा है। 1984 के दंगों को कौन भुला सकता है। यहां किसी को कटघरे में खड़ा करने का मकसद नहीं है। मकसद इतना ही है कि हर दंगे के पीछे राजनीति रही है,  तो फिर 2002 के दंगों को लेकर इतना हंगामा क्यों खड़ा किया जाए। जब किसी सरकार का आकलन होता है, तो बुराइयों के साथ अच्छाइयों को भी गणना में लेना होता है। संभव है कि 2002 के दंगे मोदी सरकार का बुरा पहलू होगा, लेकिन दो बार दो तिहाई बहुमत हासिल किया जाना कहीं न कहीं उनकी कार्यशैली और उनके कामकाज को जनता का समर्थन भी है, जिसे स्वीकार करना ही चाहिए।